ज़ाकिर अली ‘रजनीश की एक पुरानी पोस्ट पढ़ रहा था जो उन्होंने हिंदी ब्लॉग के एग्रीगेटर्स पे लिखी थी जो एक इमानदार पोस्ट थी .उसमें जाकिर जी ने एक सवाल पूछा था की क्या एग्रीगेटर्स से ईमानदारी की अपेक्षा करना मूर्खता है? इसका जवाब सीधा साधा सा आज के हिंदी ब्लॉगजगत की स्थिति को देखते हुए एक ही है.
जी हाँ यह मूर्खता है.
मैंने जब हिंदी ब्लॉगजगत मैं क़दम रखा तो धर्म युद्ध और एग्रीगेटर्स के खिलाफ लेखो की बाढ़ सी आयी लगती थी. अमन का पैग़ाम के ज़रिये मैंने धर्म युद्ध को ठंडा करने का काम किया और ५७ ब्लोगेर्स के सहयोग के साथ सफलता भी मिली. लेकिन इन एग्रीगेटर्स का काम बादस्तूर चलता रहा . एग्रीगेटर्स कैसे काम करते हैं इसके तकनिकी जानकारी को मैं समझ सकता था इसलिए जब मैंने इसका कारण समझने की कोशिश की तो कुछ बातें सामने आयी.
हिंदी ब्लॉगजगत का दाएरा अभी बहुत छोटा है और यहाँ कुछ दिनों के भीतर ही ब्लॉगर एक दूसरे को को जानने और पहचानने भी लगते हैं. यह एक इंसानी फितरत है की वो अपने दोस्तों, हम ख्याल,हम शहर लोगों का गुट बना लिया करता है. और उसको समय असमय मदद भी करता है. यह एग्रीगेटर्स भी हम जैसा कोई ब्लोगेर ही चलाता है, उसके भी दोस्तों के ब्लॉग होते हैं, वो भी बहुत से कारणों से किसी को खुश करना चाहता है किसी को नापसंद करता. बहुत बार उसके हम मिजाज़ गुट का दबाव भी उसपे पड़ा करता है.
ऐसे मैं एग्रीगेटर्स की नीतियां धरी के धरी रह जाती हैं और वो संकलक “एक आँख का अँधा नाम नैनसुख बन के रह जाता है” . जब भी कोई एग्रीगेटर्स ऐसी ना इंसाफी करता है उसका शिकार आवाज़ उठाता है. नतीजे मैं उस एग्रीगेटर्स के सहयोगी सफाई देने के लिए आ जाते हैं और शिकार हुए ब्लॉगर को ही निशाना बना लिया करते हैं. नतीजा एक युद्ध की शुरुआत. और ब्लॉगजगत मैं असंतुलन की स्थिति का पैदा हो जाया करती है.
ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत के सुप्तावस्था मैं जाने के बाद से बहुत से संकलक नयी आ गए लेकिन आज भी कोई संकलक इनदोनो की टक्कर का नहीं है. इन दोनों के गूगल पेज रंक ४ आज भी हैं जो हिंदी संकलक के लिए एक बड़ी सफलता कहा जा सकता है. जबकि प्लोग्प्रर्हरी अभी २ पेज रंक पे ही टिका है और हमारी वाणी की ३ पेज रँक है.इन्डली अभी भी २ पेज रँक पे पड़ी है.
अधिकतर संकलक हस्तचालित हुआ करते हैं. या आप ऐसा कह लें की होते तो यह स्वचालित हैं लेकिन इसको अपने साथियों को खुश करने के लिए और कुछ के खिलाफ गुटबाजी के लिए हस्तचालित बना दिया जाता है.
आज मुकम्मल तौर पे स्वचालित संकलक की कमी इस हिंदी ब्लॉगजगत मैं महसूस की जा रही है. जहाँ ब्लोगर एक बार अपने ब्लॉग रजिस्टर करने के बाद बे फ़िक्र हो जाए की उसकी पोस्ट इमानदारी से संकलक पे आ रही होगी और उसको पढने वालों की संख्या के साथ कोई छेड़ छाड नहीं हो रही होगी.
यदि ऐसा कोई संकलक वजूद मैं नहीं आता है तो इस हिंदी ब्लॉगजगत के इतना बड़ा होने तक इंतज़ार करें जब ब्लोगर एक दूसरे को शहर,घर नाम और जाति से हट कर केवल उसके लेखों से पहचान ना शुरू कर देंगे.
संकलक हकीकत मैं नए ब्लोगर की ज़रुरत है और पुराने ब्लोगर का शौक.
अपने ब्लॉग के पाठक बढ़ाने के लिए आप इन कुछ एग्रीगेटर्स की सहायता ले सकते हैं.
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जी हाँ यह मूर्खता है.
मैंने जब हिंदी ब्लॉगजगत मैं क़दम रखा तो धर्म युद्ध और एग्रीगेटर्स के खिलाफ लेखो की बाढ़ सी आयी लगती थी. अमन का पैग़ाम के ज़रिये मैंने धर्म युद्ध को ठंडा करने का काम किया और ५७ ब्लोगेर्स के सहयोग के साथ सफलता भी मिली. लेकिन इन एग्रीगेटर्स का काम बादस्तूर चलता रहा . एग्रीगेटर्स कैसे काम करते हैं इसके तकनिकी जानकारी को मैं समझ सकता था इसलिए जब मैंने इसका कारण समझने की कोशिश की तो कुछ बातें सामने आयी.
हिंदी ब्लॉगजगत का दाएरा अभी बहुत छोटा है और यहाँ कुछ दिनों के भीतर ही ब्लॉगर एक दूसरे को को जानने और पहचानने भी लगते हैं. यह एक इंसानी फितरत है की वो अपने दोस्तों, हम ख्याल,हम शहर लोगों का गुट बना लिया करता है. और उसको समय असमय मदद भी करता है. यह एग्रीगेटर्स भी हम जैसा कोई ब्लोगेर ही चलाता है, उसके भी दोस्तों के ब्लॉग होते हैं, वो भी बहुत से कारणों से किसी को खुश करना चाहता है किसी को नापसंद करता. बहुत बार उसके हम मिजाज़ गुट का दबाव भी उसपे पड़ा करता है.
ऐसे मैं एग्रीगेटर्स की नीतियां धरी के धरी रह जाती हैं और वो संकलक “एक आँख का अँधा नाम नैनसुख बन के रह जाता है” . जब भी कोई एग्रीगेटर्स ऐसी ना इंसाफी करता है उसका शिकार आवाज़ उठाता है. नतीजे मैं उस एग्रीगेटर्स के सहयोगी सफाई देने के लिए आ जाते हैं और शिकार हुए ब्लॉगर को ही निशाना बना लिया करते हैं. नतीजा एक युद्ध की शुरुआत. और ब्लॉगजगत मैं असंतुलन की स्थिति का पैदा हो जाया करती है.
ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत के सुप्तावस्था मैं जाने के बाद से बहुत से संकलक नयी आ गए लेकिन आज भी कोई संकलक इनदोनो की टक्कर का नहीं है. इन दोनों के गूगल पेज रंक ४ आज भी हैं जो हिंदी संकलक के लिए एक बड़ी सफलता कहा जा सकता है. जबकि प्लोग्प्रर्हरी अभी २ पेज रंक पे ही टिका है और हमारी वाणी की ३ पेज रँक है.इन्डली अभी भी २ पेज रँक पे पड़ी है.
अधिकतर संकलक हस्तचालित हुआ करते हैं. या आप ऐसा कह लें की होते तो यह स्वचालित हैं लेकिन इसको अपने साथियों को खुश करने के लिए और कुछ के खिलाफ गुटबाजी के लिए हस्तचालित बना दिया जाता है.
आज मुकम्मल तौर पे स्वचालित संकलक की कमी इस हिंदी ब्लॉगजगत मैं महसूस की जा रही है. जहाँ ब्लोगर एक बार अपने ब्लॉग रजिस्टर करने के बाद बे फ़िक्र हो जाए की उसकी पोस्ट इमानदारी से संकलक पे आ रही होगी और उसको पढने वालों की संख्या के साथ कोई छेड़ छाड नहीं हो रही होगी.
यदि ऐसा कोई संकलक वजूद मैं नहीं आता है तो इस हिंदी ब्लॉगजगत के इतना बड़ा होने तक इंतज़ार करें जब ब्लोगर एक दूसरे को शहर,घर नाम और जाति से हट कर केवल उसके लेखों से पहचान ना शुरू कर देंगे.
संकलक हकीकत मैं नए ब्लोगर की ज़रुरत है और पुराने ब्लोगर का शौक.
अपने ब्लॉग के पाठक बढ़ाने के लिए आप इन कुछ एग्रीगेटर्स की सहायता ले सकते हैं.
Aman ka paighm on facebook
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15 comments:
maasum bhaai sahi frmaayaa ..akhtar khan akela kota rasjthan
now its problem of plenty ....thanks for an update of list !
आपकी बातें विचारणीय है .....देखते हैं क्या होता है आगे ..आगे ....!
पिता बच्चों की परवरिश करता है, यह उस का दायित्व है। वह बच्चों से कुछ अपेक्षा रख कर यह करता है तो यह उस की मूर्खता है।
यदि कोई मुवक्किल हर पेशी पर वकील को कहता रहे कि वह मुकदमा जीतने पर उसे निहाल कर देगा। वकील अपनी फीस यदि मुकदमे की अंतिम बहस के पहले वसूल न कर ले तो वह 99% मामलों में डूब जाती है। ऐसी अपेक्षा रखने वाला वकील मूर्ख नहीं तो क्या कहलाएगा। मैं भी अनेक बार यह मूर्खता कर बैठा हूँ और अक्सर करता रहता हूँ।
किसी से भी कुछ भी अपेक्षा रखना मूर्खता हो सकती है। हमेशा हमें अपेक्षाहीन ही रह कर कर्म करना चाहिए। शायद गीता भी यही कहती है?
अच्छा लेखन किसी का मोहताज़ नहीं होता । संकलक का भी नहीं ।
दिनेशराय द्विवेदी जी हमेशा हमें अपेक्षाहीन ही रह कर कर्म करना चाहिए ,बहुत सही उपदेश है और इसी पे हम सबको चलना भी चाहिए. लेकिन संकलक मैं कैसा कर्म ? इमानदारी की अपेछा करना किसी से भी ग़लत नहीं. चाहे वो सुविधा मुफ्त हो या पैसे ले के दी गयी हो. ऐसा मेरा मानना है.
डॉ टी एस दराल @ सौ टके की बात कही है आपने की अच्छा लेखन किसी का मोहताज़ नहीं होता । संकलक का भी नहीं ।
अच्छी जानकारी दी आपने, धन्यवाद.
:)
kyaa kahein abhi ...!
hnm.....!!!!
मासूम भाई आप एक इमानदार ब्लोगर हैं . बस २-४ ब्लोगर भी आप जैसे हो जाएं तो इस हिंदी ब्लॉगजगत का नक्शा बदल जाए.
संकलक हकीकत मैं नए ब्लोगर की ज़रुरत है और पुराने ब्लोगर का शौक : मुझे लगता है कि फिलहाल तो यह सभी की जरुरत है.
बहुमत के दबाव में बेईमानी की ओर
आपको हिंदी और अंग्रेज़ी भाषा के एग्रीगेटर्स की अच्छी जानकारी है। यह लेख बता रहा है। ऐसी ही उम्दा जानकारी देने वाले दो चार लेख आप हिंदी ब्लॉगिंग गाइड के लिए दे दीजिए ताकि नए ब्लॉगर्स को मैदान में लाया जा सके।
गुटबाज़ी, पक्षपात और कम पात्र लोगों को ईनाम से नवाज़े जाने के हादसों ने बहुत से पुराने मगर कमज़ोर हिंदी ब्लॉगर्स के क़दम उखाड़ दिए हैं।
कुछ लोग आए थे मिशन की ख़ातिर और फिर लग गए नोट बनाने में। अपना ईमान और ज़मीर तक ये लोग गिरवी रख चुके हैं या हो सकता है कि उसे बिल्कुल ही बेच डाला हो ?
इसके बावजूद वे ख़ुद को किसी मसीहा की मानिंद ही पेश करते हैं।
उनकी अदा और अदाकारी से बहरहाल मनोरंजन तो होता ही है। ब्लॉगिंग का इस्तेमाल आजकल निजी ख़ुशी के लिए ही ज़्यादा हो रहा है। एक मुख्यमंत्री के ख़ून सने हाथों से ईनाम पाने के लिए पुराने मीडियाकर्मियों से लेकर न्यूमीडिया के फ़नकार तक सभी बिछे जा रहे थे। यह मंज़र भव्य था और सभी ने इसे देखा है।
बेईमान बहुल लोगों की सेवा करते करते ईमानदार भी उनकी चपेट में आ जाते हैं।
इसके बावजूद उम्मीद पर दुनिया क़ायम है।
गूगल की ख़ुद अपनी व्यवस्था ऐसी है कि वह आपको पाठक भी देता है बशर्ते कि आपका लेख उपयोगी हो और ज़्यादातर लोगों की ज़रूरत को पूरा करता हो।
ईमानदारी मुश्किल है, इसीलिए लोग बेईमान हो जाते हैं क्योंकि लोग ईमानदार बनकर ‘बहुमत‘ को अपने खि़लाफ़ करना नहीं चाहते।
झूठ-फ़रेब और दग़ा को साहित्यिक भाषा में कूटनीति कहा जाता है। अभी तक तो मशहूर और सफल हिंदी एग्रीगेटर्स कम या ज़्यादा इसी कूटनीति को ही अपनी नीति बनाए हुए हैं।
समीर लाल जी शौक ,ज़रुरत और मजबूरी के बीच मैं ही इंसान दौड़ता भागता रहता है और अक्सर यह नहीं समझ पाता की किसी की सहायता लेना उसका शौक है, मजबूरी है या ज़रुरत.
कुछ लोग आए थे मिशन की ख़ातिर और फिर लग गए नोट बनाने में। अपना ईमान और ज़मीर तक ये लोग गिरवी रख चुके हैं या हो सकता है कि उसे बिल्कुल ही बेच डाला हो ?
इसके बावजूद वे ख़ुद को किसी मसीहा की मानिंद ही पेश करते हैं।
उनकी अदा और अदाकारी से बहरहाल मनोरंजन तो होता ही है। ब्लॉगिंग का इस्तेमाल आजकल निजी ख़ुशी के लिए ही ज़्यादा हो रहा है। एक मुख्यमंत्री के ख़ून सने हाथों से ईनाम पाने के लिए पुराने मीडियाकर्मियों से लेकर न्यूमीडिया के फ़नकार तक सभी बिछे जा रहे थे। यह मंज़र भव्य था और सभी ने इसे देखा है।
बेईमान बहुल लोगों की सेवा करते करते ईमानदार भी उनकी चपेट में आ जाते हैं।
किसी एक भी नाम लें तो ज्यादा प्रभावी हो सकेगी बात ।आपकी चिंता ज़ायज़ है और उसका उपाय ये कि या तो जो संकलक मौजूद हैं उनमें उपस्थिति बनाए रखिए , या फ़िर कोई ऐसा निष्पक्ष एग्रीगेटर जो हर मानक पे खरा उतरता हो ,या फ़िर कि जैसा कि डा दराल ने कहा कि लिखते रहिए और पाठकों पर छोड दीजीए । सिर्फ़ दोषारोपण से कुछ हासिल नहीं होने वाला
आओ मिलकर विचारें कि हिन्दी ब्लॉगिंग को किसी एग्रीगेटर की जरूरत क्यों है ? ब्लॉग नहीं होता तो क्या करते, ब्लॉग है तो एग्रीगेटर चाहिए, एग्रीगेटर है तो कमाई क्यों नहीं हो रही है, कमाई चाहिए। इच्छाएं असीम हैं, उन पर रोक लगा लें या बांध लें बांध।
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